उत्तर भारत में निर्गुण संत परम्परा की जो धरा प्रवाहित हुई उसका श्रेय कबीर को दिया जाता है | वैसे तो कबीर का जीवन किम्वदंतियों , अटकलों , चमत्कारिक कहानियों से ढक दिया गया है |
जो बात असंदिग्ध रूप से कही जा सकती है वह ये है की उनका पालन - पोषण एक जुलाहा परिवार में हुआ था | इस परिवार को इस्लाम धर्म में आये हुए अभी बहुत समय नहीं हुआ था , इसलिए इस्लाम और हिन्दू दोनों धार्मिक परम्पराएँ साथ - साथ चल रही थी | कबीर के गुरु के रूप में रामानंद का नाम लिया जाता है | इस बिंदु पर विद्वानों का मत भले एक न हो लेकिन निर्गुण राम के प्रति कबीर की निष्ठां संदेह से परे है | आजीविका के लिए कबीर जुलाहे का व्यवसाय करते थे | कबीर के जीवन काल के सम्बन्ध में अध्येताओं में मतभेद है | मोटे तोर में उनका समय सन 1398 - 1448 माना गया है |
कबीर की काव्य - संवेदना लोकजीवन से अपनी उर्जा ग्रहण करती है | यह संवेदना मनुष्य - मात्र की समानता की पक्षधर है | जो परम्परा मनुष्य मनुष्य में भेद करती है , कबीर उसके खिलाफ खड़े दिखाई देते हैं | वे शास्त्र ज्ञान पर नहीं ,' आखिन देखि ' पर यकीं करते हैं | ढोंग और पाखंड से उन्हें गहरी चिढ है | वे सहज , सरल जीवन जीने के पक्ष में हैं | प्रवृति और निवृति दोनों तरह का अतिवाद उन्हें कभी स्वीकार नहीं हुआ | उनकी कविता में एक जुलाहे का जीवन बोलता है | वे पुरे आत्मविश्वास के साथ प्रतिपक्षी को चुनौती देते हैं | उनकी कविता जीवन के बुनियादी सवाल उठाती है | इन सवालों की प्रासंगिकता छ: सौ साल बाद आज भी बनी हुई है |
कबीर को ' वाणी का डिक्टेटर ' कहा गया है | इस का अर्थ ये है की भाषा उनकी अभिव्यक्ति में रोड़े नहीं अटका पाती | वे बोलचाल की भाषा के हिमायती थे | उनकी कविता में तमाम बोलियों , भाषाओँ से आये शब्द शामिल हैं | कबीर की रचनाओं की प्रमाणिकता को लेकर विवाद है | कबीर की रचनाएँ प्राय : मौखिक रूप से संरक्षित रही , इसलिए उनमे भाषा के बदलते रूपों की रंगत शामिल होती गई | इन रचनाओं का मूल रूप क्या था , इसका ठीक - ठीक पता लगाना आज बहुत कठिन है | कबीर की वाणियों का संग्रह ' बीजक ' के नाम से प्रसिद्ध है | कबीरपंथ इसे ही प्रमाणिक मानते हैं | कबीर की रचनाओं का संग्रह और संपादन आधुनिक युग के कई विद्वानों ने किया है |
कबीर को हिन्दू - मुस्लिम एकता का प्रतीक बना दिया गया है | एसी समझ प्रचारित कर दी गई है की कबीर दोनों धर्मों को आपस में जोड़ने की कोशिश कर रहे थे | जहां भी ' सर्व - धर्म - समभाव ' की बात आती है वहां कबीर को उदाहरण के रूप में रखा जाता है | यह मान्यता पूरी तरह सही भी नहीं है | कबीर मात्र सर्व - धर्म - समभाव के कवी नहीं हैं | वे अपने समय में मौजूद सभी धर्मों की बुराइयों से परिचित हैं | उनकी आलोचना करने में वे हिचकते नहीं | उनका व्यंग , धर्म का धंधा करने वालों की पोल खोल देता है | हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों में उन्हें मिथ्यात्व दिखाई देता है | वे इन संगठित धर्म - मतों से अलग तीसरे विकल्प का प्रस्ताव करते हैं | समाज की गति पर कबीर को गुस्सा आता है | उनका गुस्सा इस बात को लेकर है की यह संसार झूठ पर तो विश्वास कर लेता है लेकिन सच बताने वालों को मारने दौड़ता है |
संतों देखत जग बौरान |
सांच कहों तो मरण धावै | झूठे जग पतियाना ||
नेमी देखा धरमी देखा |परत करे असनाना ||
आतम मरी पखान्ही पूजै |उनमें कछु नहीं ज्ञाना ||
भुतक देखा पीर औलिया | पढ़े किताब कुराना ||
कहे कबीर सुनो हो संतों | ई सब गर्भ भुलाना ||
केतिक कहों कहा नहिं मानै | सहजै सहज समाना ||
15 टिप्पणियां:
सही कहा आपने।
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मायावी मामा?
रूमानी जज्बों का सागर है प्रतिभा की दुनिया।
लोंग झूठ पर जिस सहजता से यकीन कर लेते हैं , सच पर नहीं!
संतों का रोष भी समाजहित के लिये ही होता है। सुन्दर आलेख!
कल 26/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सार्थक आलेख अच्छा लगा आभार ......
बिल्कुल सही कहा है आपने ।
बेहतरीन लेख बधाई हो आपको
आप भी मेरे फेसबुक ब्लाग के मेंबर जरुर बने
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सच है, कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं । शब्द उनकी चाकरी करते नजर आते हैं।
ज्ञानवर्धक प्रस्तुति।
बहुत अच्छी बाते कही आपने ।पढ कर एक सुकून सा मिला.....
आपको, परिजनों तथा मित्रों को दीपावली पर मंगलकामनायें! ईश्वर की कृपा आपपर बनी रहे।
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साल की सबसे अंधेरी रात में*
दीप इक जलता हुआ बस हाथ में
लेकर चलें करने धरा ज्योतिर्मयी
बन्द कर खाते बुरी बातों के हम
भूल कर के घाव उन घातों के हम
समझें सभी तकरार को बीती हुई
कड़वाहटों को छोड़ कर पीछे कहीं
अपना-पराया भूल कर झगडे सभी
प्रेम की गढ लें इमारत इक नई
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bahut badiya prastuti...
बहुत प्यारी संकलन योग्य रचना ....
काफी दिन से लिख नहीं रहीं ...
शुभकामनायें आपको !
संतों ने हमेशा से ही समाज को दिशा दी है किसी न किसी रूप में ..
मीनक्षी जी
कबीर पर आपने इतना अच्छा लेखा लिखा , इसके लिये धन्यवाद.
और आपने सही कहा कि संतो का अपना एक मिजाज होता है और इनसे ही प्यार मिलता है ..
बधाई !!
आभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " कल,आज और कल " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/11/blog-post_30.html
यह हर युग की कहानी है। हर युग में संत इन सबके प्रति सचेत भी करते रहे हैं। बार-बार वही-वही चक्र और आदमी जस का तस!
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