मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

अमृता प्रीतम

अमृता प्रीतम का जन्म गुजरांवाला में सन 1919 में हुआ | उन्होंने छोटी  सी उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया | उनकी कविताओं की दो शुरुवाती संग्रह ' ठंडिया किरणां ' (1935 ) में और 'अमरित लहरा ' ( 1930 ) पारम्परिक अभिप्रायों और विषयों से सजी भावनात्मक पूर्ण उपदेशों को दर्शाती है | मार्क्सवादी विचार और प्रगतिशील लेखक आन्दोलन के सम्पर्क में आने के बाद ही उन्होंने सामाजिक और राजनैतिक  कवितायेँ लिखनी शुरू की | इस समय की इनकी महत्वपूर्ण  रचनाओं में से ' पत्थर गिते ' एक है जो  ( 1940 ) में लिखी गई थी जिसमें विरोध और आत्म दया जैसी काव्य मुद्राएँ मिली है | 1940   में देश विभाजन के समय वे नई  दिल्ली आ गई थीं | यहाँ आकर उन्होंने अपनी मातृभाषा छोड़ कर हिंदी में लिखना शुरू किया |देश के विभाजन और उसके परिणाम स्वरूप बहुत  बड़ी मात्रा में औरतों  की बेइज़्ज़ति, अपमान और बलात्कार ने उनकी  लेखनी में बहुत ज्यादा असर डाला | उनकी रचना ' पिंजर ' ( 1970 ) में आई जिसमें इस वक़्त का बहुत ही मार्मिक लेखा - जोखा देखने  को मिलता है | जिसमें धार्मिक और राजनितिक संघर्ष उनके अपने नारीत्व के नज़रिए से देखने को मिलते हैं | अमृता प्रीतम को ( 1956 ) में साहित्य अकादमी पुरुस्कार मिला था उस वक्त वो पहली महिला थी जिन्हें इस पुरुस्कार से नवाज़ा गया था | यह परुस्कार उनकी रचना ' सुनहरे ' को मिला था | इस रचना में उन्होंने अपने भाग्य और सामाजिक कुप्रथाओं के खिलाफ एक नारी की चीख का चित्रण किया था | उनकी कहानी और कविताएँ निजी जिंदगी के संस्पर्श से युक्त है कंयुकी   इनमें अमृता प्रीतम दुखद विवाह , दमित प्रेम और साथ ही सखाभाव की मुक्तिकारी शक्ति को चित्रित करती है | ' कागज ते कैनवास ' ( 1973 ) पर 1982 में मिले भारत के साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ के साथ अमृता प्रीतम को बहुत सारे राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय सम्मान मिले हैं | अमृता प्रीतम ने बहुत बड़े पैमाने में लेखन  किया है | 1976 में छपी अपनी आत्मकथा  ' रसीदी टिकट ' के अतिरिक्त उन्होंने 28 उपन्यास , 18 खंडो में कवितायेँ  , पांच कहानी संग्रह और अलग -अलग विषयों में 16  संकलनों में गद्य लेखन भी किया है | अपने जीवन और रचना कर्म में अमृता प्रीतम एक स्त्री , एक व्यक्ति और एक रचनाकार के तौर पर स्वतंत्रता के अपने अधिकार के प्रति निष्ठावान और मुखर रही हैं | अपने गैर पारम्परिक , निजी और पेशेवर चुनाओं और निडरता ने उन्हें भारतीय साहित्य जगत का प्रेम पात्र और अपराधी दोनों बना दिया |

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

असदुल्ला खान मिर्ज़ा ग़ालिब

ग़ालिब ( 1797  - 1869  ) उन तुर्कों के संभ्रांत परिवार में से थे , जो ट्रांसोक्सियाना से चलकर 18 वीं शताब्दी में भारत आये थे | उस समय दिल्ली की गद्दी पर शाह आलम द्वितीय  आसीन था ग़ालिब  का जन्म आगरा में हुआ था और वो युवावस्था में दिल्ली आ गये थे | उनका बचपन पतंगबाज़ी और शतरंज खेलते हुए ख़ुशी - ख़ुशी बीता | उन्होंने अपना अधिकांश जीवन दिल्ली में ही गुजारा | 1827  में वो कलकत्ता  गये वहां दो वर्ष बहुत प्रसन्नता - पूर्वक रहे | कलकत्ता  की हरियाली  , खुबसूरत औरत  और आमों ने उन्हें खूब लुभाया , साथ ही यहाँ रहते हुए उन्हें मुस्लिम , बंगाली और अंग्रेज बुद्धिजीवियों से सम्पर्क का अवसर मिला | वे अख़बार और आधुनिक विचारों से अवगत हुए जिसने उनकी जीवन दृष्टि और शायरी को समृद्ध किया |
                          1829 में वे दिल्ली लौटे  जहां उन्होंने बाकि जिन्दगी गुजारी | दिल्ली में उन्हें  आर्थिक   कठिनाइयों का सामना करना पड़ा | अधिकरियों से उनका बराबर का झगडा चलता रहा | इन सब मुश्किलों के बावजूद उन्होंने लगातार सृजन किया | अपने तमाम दोस्तों को लिखे खतों में उन्होंने  बताया  है की लिखना उनके लिए सुकून का स्त्रोत  है | ग़ालिब ने यह सोचकर खुद को सांत्वना दी की एक कवि  की महानता का मतलब ही है ... अंतहीन दुर्भाग्य | आर्थिक तंगी से ही शायद उनमें  जुए  का शौक  पैदा हुआ होगा जिसकी वजह से उन पर मुकदमा चला वे 1847  में जेल में डाले गए | यह घटना उनकी जिन्दगी की सबसे हताशा - जनक अनुभवों में से एक है | यह वर्ष ग़ालिब के लिए मिश्रित वरदान साबित हुआ कयुकि  इस समय वे मुग़ल दरबार के संपर्क में आए जो एक दशक तक चला | इस दौरान   उन्होंने  मुहब्बत और जिंदगी के मसायल पर जम कर लिखा | ग़ालिब के दो समकालीनों ने उनकी जीवनियाँ लिखी | ये हैं हाली द्वारा रचित ' यादगारे- ए - ग़ालिब ' ( 1897  ) और मिर्जा मोज द्वारा ' हयात - ए -  ग़ालिब '  ( 1899  ) | ये जीवनियाँ हमें  उनकी जिंदगी और वक़्त को समझने की अंतदृष्टि देती है |
                          ग़ालिब ने उर्दू और फारसी दोनों ही भाषाओँ में लिखा है | 19  वी शताब्दी में उर्दू और फारसी की कविता और ग़ज़ल का वर्चस्व था | मोमिन , जोक और ग़ालिब इसके सरताज थे | शायरी की दुनिया आशिक ( प्रेमी ) माशूक ( प्रेमिका ), रकीब ( प्रेमी का प्रतिद्वंदी ) साकी ( प्याला देने वाला ) और शेख ( धर्म गुरु ) के इर्द - गिर्द घुमती थी | ग़ालिब की लगभग सभी उर्दू कविताएँ ग़ज़ल शैली  में हैं जिनका कथ्य प्राय : परम्परा से तय होता था | लेकिन , इनके लचीलेपन में इहलौकिक और अलौकिक दोनों तत्वों का सहजता से समावेश हो जाता था | खुदा के प्रति और माशूका के प्रति प्रेम  मुख्य  विषय - वस्तु थे तो गजल की शैली  इसके लिए वो ज़मीन उपलब्ध करवा देती थी जिस पर कवि  शत्रुवत और उदासीन  समाज के विरुद्ध प्रेम और गूढ़ मानववाद के आदर्शों को उकेर ( उभारना  ) सकता था | ग़ालिब के उर्दू   दीवान का पहला संस्करण  1841  में प्रकाशित हुआ | मयखाना - ए - आरजू ' शीर्षक के अंतर्गत फारसी लेखक का संग्रह 1895  में प्रकाशित हुआ | उनकी फारसी डायरी ' दस्तम्बू ' ( 1858  ) सिपाही विद्रोह और दिल्ली पर इसके प्रभाव का प्रमाणिक दस्तावेज है | 1868 में कुल्लियत - ए - नत्र - ए - फारसी - ए  ग़ालिब ' नाम से उनका फारसी लेखन का एक और संग्रह प्रकाशित हुआ जिसमे पत्र , प्राक्कथन , टिप्पणियाँ आदि थे | एक गद्द्य लेखक के रूप में उनकी ख्यति उनके पत्रों के कारण  है , जो ' उद् - ए - हिंदी ' ( 1868  ) और ' उर्दू - ए - मुअल्ला ' ( 1869  )  नाम के दो संकलनों में प्रकाशित है |
                   हजारों  ख्वाहिशें  एसी : यह एक एसी गजल है जो मानवीय अस्तित्व की दुविधाओं , एक मनुष्य के आकांक्षाजन्य तनावों   और एक जीवन आदर्श की तलाश में लगे कवि की भावनाओं को अभिव्यक्ति देती है | यह ग़ज़ल शेरों  की एक श्रृंखला से बुनी गई है जिसमें प्रत्येक शेर स्वतंत्र अर्थ देता है और विषय और भाव की दृष्टि से अपने आप में पूर्ण है | शुरुवाती शेर ( मतला ) छंद योजना ( काफिया ) और स्थाई टेक ( रदीफ़ ) का संकेत देता है | अंतिम शेर में शायर अपना तखल्लुम शामिल  करता है | इस ग़ज़ल में मानव जीवन की अत्यधिक गहन और अत्यधिक उथली दोनों ही प्रकार की चेष्टाएँ परस्पर गुंथी  हुई दिखाई देती है | इसी तरह विलास और विषाद दोनों ही स्वर साथ - साथ चलते हैं |
                  कवि जब प्रेम की खोज में , जो लौकिक भी है और परलौकिक भी , और इस प्रेम को अभिव्यक्त करने की भाषा की खोज में जैसे - जैसे आगे बढता है तब ए परस्पर विरोधी भाव और भंगिमाएं उजागर होने लगती है |   

हजारों  ख्वाहिशें  एसी , कि हर ख्वाहिश पे दम निकले 
बहुत निकले मेरे अरमान , लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यों मेरा कातिल , क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खूं जो चश्मे - तर - से1 उम्र - भर यूँ  दम - ब - दम2 निकले

निकलना खुल्द3 से आदम सुनते आये थे लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कुचे से हम निकले

मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर4 पे दम निकले

कहाँ मखाने का दरवाजा ' ग़ालिब ' और कहाँ व़ाईज़5
पर इतना जानते हैं , कल वो जाता था की हम निकले
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चश्मे - तर - से     :::::::::     भीगी आँख से

दम - ब - दम       ::::::::::::   क्षण - क्षण

खुल्द ::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::    स्वर्ग

काफ़िर ::::::::::::::::::::::::::::::::::::  नास्तिक

व़ाईज़ ::::::::::::::::::::::::::::::::::::::: धर्मोपदेशक

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रविवार, 20 फ़रवरी 2011

मेरे तो गिरधर गोपाल

 मीरा का समय सोलवहीं शती है | राजस्थान के मेड़ता राज्य के राठोर रत्न सिंह के यहाँ उनका जन्म हुआ था | कृष्ण के प्रति उनका लगाव बचपन से ही  गया था | उनका विवाह उदयपुर के राजा भोजराज के साथ हुआ | विवाह के थोड़े समय बाद महाराणा भोजराज का निधन हो गया | मीरा ने तो निधन के पहले कृष्ण को अपना पति मान लिया था | मीरा की भक्ति  माधुर्य भाव की थी | वे प्रियतम कृष्ण के ध्यान में डूबी रहती थी | उस समय कुलवधुओं से अपेक्षा की जाती थी की वे अंत:पुर  से बाहर कदम न रखे | मीरा ने इस आदर्श की बिलकुल प्रवाह नही की | कृष्ण  के प्रति अगाध प्रेम ने उनमे अपार आत्मविश्वास भर दिया था | तमाम वर्जनाओं से बेफिक्र वे साधू संतों की संगती करती | कृष्ण की मूर्ति के समक्ष मंदिर में नाचा करती | राजकुल के लिए ये बेहद अपमान जनक था | राजपरिवार उनके विरुद्ध हो गया | मीरा को तरह - तरह से सताया गया | उन्हें मारने के लिए विष का प्याला लोक स्मृति में दर्ज़  हैं | सारी बाधाएँ मीरा की भक्ति के सामने बेअसर साबित हुई | कृष्ण  के प्रति मीरा की विह्वलता उनके पदों में व्यक्त होती है |
                     मध्य युग में स्त्री का स्वतंत्र व्यक्तित्व समाज के लिए कितना असहाए था , मीरा का जीवन इसका प्रमाण है | मीरा अपने युग की बंदिशों का डटकर मुकाबला करती है | लोकलाज की निरर्थरकता के सम्बन्ध में उन्हें कोई भ्रम नहीं है | वे खुले तोर पर घोषणा करती है _ 
                    ' लोक लाज कुलकानि जगत के दई बहाय जस पानी | 
                          अपने घर का पर्दा करि ले मैं अबला बोरानी | '
                    मीरा के समय के प्राय : सभी महत्वपूर्ण भक्त कवि किसी न किसी संप्रदाय से जुड़े हुए थे | सम्प्रदाय से जुडाव सुरक्षा का अहसास करता था | मीरा ने इस सुरक्षा को भी नहीं स्वीकारा | वे आजीवन सम्प्रदाय - निरपेक्ष बनी रहीं | मीरा के गुरु के रूप में रैदास का नाम लिया जाता है | लेकिन यह मान्यता असंदिग्ध नहीं है | मीरा की पदावली का सम्पादन कई विद्वानों ने किया है | मीरा के पदों की भाषा राजस्थानी मिश्रित ब्रज  भाषा है | कहीं - कहीं विशुद्ध ब्रजभाषा भी दिखाई देती है |
                  संकलित पद में मीरा ने कृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम की कथा कही है | कृष्ण ही उनके सर्वस्य हैं  | दूसरा कोई आश्रय नहीं | कृष्ण के लिए उन्होंने बंधू - बांधव सबको तज़ दिया है | संतों के सानिध्य में उन्हें सुख मिलता है और संसारिकता के घेरे में दु:ख | विरह जनित आंसुओं ने उनकी प्रेम बेल को सींचा है | यह प्रेम ही जीवन का सार तत्व है | लोकापवाद ( लोगो द्वरा की गई बात ) की चिंता क्यु की जाये ? मीरा की भाषा प्रभावपूर्ण है | पद रचना में शास्त्रीय नियमों की बहुत प्रवाह नहीं करती |

मेरे तो गिरधर गोपाल , दुसरो न कोई |
जाके सर मोर मुकुट , मेरो पति सोई |
तात  मात  भ्रात  बंधु , आपनो न कोई ||
छाडि  देई कुल की कानी , कहा करै कोई |
संतन ढिंग बैठी  बैठी , लोक- लाज खोई ||
चुनरी  के किये टूक , ओढ़ी लीन्हीं लोई |
मोती मुंगे उतारि , बन माला पोई ||
अंसुअन जल सींचि - सींचि  , प्रेम - बेलि बोई |
अब तो बेलि फैली गई  , आनंद फल होई ||
प्रेम की मथनियां , बड़े जतन से विलोई |
घृत - घृत सब काढी लियो , छाछ पीओ कोई ||
भगत देखि राजी भई , जगत देखि रोई |
दासी मीरा लाल गिरधर , तारो अब मोहि ||

महाभारत :

'भारतीय परम्परा में रामायण तथा महाभारत को अत्यधिक महत्व प्राप्त है | इन्हें उपजीव्य काव्य कहा जाता है | उपजीव्य कहने का अर्थ यह है की ये ग्रन्थ  परवर्ती रचनाओं के स्त्रोत रहे हैं | संस्कृत काव्य - परम्परा के अतिरिक्त भारत की दूसरी भाषाओँ के रचनाकारों ने रामायण तथा महाभारत के आधार पर अनगिनत काव्यों की रचना की है | हमारे सांस्कृतिक मानस के निर्माण में इन कृत्यों की उल्लेखनीय भूमिका है |
               रामायण को काव्य कहा जाता है और महाभारत  को ' इतिहास ' | यहाँ इतिहास का मतलब एसे  पूर्ववृत से है जिसके माध्यम से धर्म  , अर्थ , काम और मोक्ष का उपदेश दिया जा सके | रामायण को महाभारत  से प्राचीनतर  माना जाता है | वाल्मीकि द्वारा रचित ' रामायण ' की कथा से महाभारतकार  न केवल परिचित है बल्कि वह रामकथा प्रसंगानुकुल प्रस्तुत भी करता है | रामकथा का वर्णन ' आरण्यक ' द्रोण और ' शांतिपर्व ' में मिलता है |' शांतिपर्व ' में प्राप्त रामोपाख्यान सबसे अधिक विस्तृत  है | इसकी व्याख्या शोकाकुल युधिष्ठिर को ऋषि मार्कण्डेय सुनाते हैं | वेद व्यास को महाभारत  का रचनाकार माना जाता है | वेद व्यास का पूरा नाम कृष्ण दैव्पायन व्यास है | वे सत्यवती तथा पराशर के पुत्र थे | यमुना के किसी द्वीप में पैदा होने के कारण उन्हें ' ' दैव्पायन ' , शरीर  के रंग के कारण ' कृष्ण मुनि ' तथा वेद का सहिंताओं  के रूप में विस्तार करने के कारण वेद व्यास कहा जाता है |  महाभरत युद्ध और ' महाभारत  ' ग्रन्थ की रचना के समय को लेकर विद्वानों में पर्याप्त विवाद है | ज्यादातर माना जाता है की महाभारत  की रचना बुद्धपूर्व युग में हो चुकी थी | बुद्ध  का समय छठी शताब्दी ईसा पूर्व है |
                  वर्तमान महाभारत  में एक लाख श्लोक मिलते हैं | इसी से इसे शतसहस्त्र संहिता भी कहते हैं | विद्वानों का विचार है की यह किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं हो सकती | दुसरे रचनाकारों ने समय -समय पर इसके कलेवर में वृद्धि की होगी | इस ग्रन्थ के विकास के तीन क्रमिक चरण माने जाते हैं ___ जय , भारत तथा महाभारत  | मूल ग्रन्थ ' जय ' के रचनाकार महर्षि वेद व्यास हैं | इसी का विस्तार करते हुए वेश्म्पायन ने ' ' भारत '  तथा सोति ने ' महाभारत ' का प्रणयन किया | महाभारत  में अठारह पर्व हैं | अपने वृहदाकार ( बहुत बड़ा आकर ) और तमाम विषयों के समावेश के कारण इसे विश्व कोष कहा जाता है | इस ग्रन्थ की बहुत सी टीकाएँ की गई हैं | इसकी विशालता को लक्षित करके ये कहना उचित  जान पड़ता है की ' इस ग्रन्थ में जो कुछ है वह अन्यत्र ( दूसरी जगह ) है , परन्तु जो कुछ इसमें नहीं है वह कहीं  और भी नहीं है | ' प्राचीन राजनीती , लोक -व्यव्हार  को जानने का सबसे विस्तृत और सरल तरीका ' महाभारत ' ही है | इसे पंचमवेद  भी कहा जाता है |