
फ़िराक़ गोरखपुरी
फ़िराक़ गोरखपुरी ( 1896 - 1982 ) का वास्तविक नाम रघुपति सहाय था | इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद उनका चयन सिविल सेवा में हो गया था | लेकिन उन्होंने इस सेवा से त्याग पत्र दे दिया , और 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए | 1923 में जवाहर लाल नेहरु ने उन्हें कांग्रेस का अवरसचिव नियुक्त किया | इस पद पर वे 1929 तक रहे | फ़िराक़ 1930 में इलाहबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्रवक्ता पद पर नियुक्त हुए | यहाँ उन्होंने 1958 तक शिक्षण कार्य किया | 1961 में उन्हें ' गुले नगमा ' के लिए साहित्य अकादमी सम्मान मिला और 1970 में वे ज्ञानपीठ परुस्कार से सम्मानित किये गए | फ़िराक़ की कविताओं के 15 खंड प्रकाशित हुए | उन्होंने थोडा - बहुत गद्द्य लेखन भी किया | लगभग आधी शताब्दी तक वे भारतीय उपमहाद्वीप की उर्दूं कविता शीर्ष पर रहे | उन्होंने 40 हजार से भी अधिक शेर लिखे , और उर्दू कविता की तीन प्रमुख विधाओं ग़ज़ल , नज़्म और रुबाई पर गहरा प्रभाव डाला |
उनकी कविता का अवसाद उन्हें मीर तकी मीर से जोड़ता है | मीर की तरह फ़िराक ने भी अपने विचारों और भावों की अभिव्यक्ति के लिए हिन्दू पोंराणिकता और हिंदी शब्दों का प्रयोग किया है | अपनी कृति ' रूप ' ( 1946 ) के प्राक्कथन में उन्होंने लिखा ' भारतीय कविता को हिंदी और संस्कृत का पूरा लाभ लेना चाहिए | ' यह बात उन्होंने उर्दू कविता में बदलाव लाने और इसे भारतीय परिस्थितियों के निकट लाने के प्रयास के अंतर्गत कही | उनकी कविता में अंग्रेजी रोमांसवाद की छवियाँ भी देखी जा सकती है |
फ़िराक़ की रचनाओं में परम्परा और आधुनिकता दोनों के ही प्रति आग्रहशीलता स्पष्टत: देखी जा सकती है | प्रेम और सोंदर्य की समयसिद्ध विषयवस्तु को छोड़े बिना , उन्होंने ग़ज़ल को अपना एक निजी स्वर व् संस्कार दिया | उन्होंने एक परिपक्व शैली विकसित की जिसमें भारतीय और फारसी परम्पराओं के साथ उस अंग्रेजी साहित्य के काव्य सम्बन्धी नियम - सिद्धांत भी गुंथे थे , जिसके वह अध्यापक थे और छात्र भी | उन्होंने अपने समय की जटिल दुविधाओं को समझा और मीर तथा ग़ालिब से प्राप्त रूपकों और प्रतीकों को नया अर्थ दिया |
उनके प्रमुख काव्य संकलनों में ' मशाल ' नगमा - ए - साज़ ' और' ' हजार दास्तान ' शामिल है | उन्होंने हिन्दी और उर्दू में एक उपन्यास भी लिखा ___' साधू की कुटिया ' | उनका कुछ आलोचनात्मक लेखन और पत्रों का एक संग्रह भी प्रकाशित हुआ |
हुस्न भी था उदास : फ़िराक़ के जीवन का एक पक्ष - राजनीती से उनके भावनात्मक लगाव से जुड़ा है | भारत के विभाजन का शोक उनकी कविता में अभिव्यक्त हुआ है | प्रस्तुत ग़ज़ल समय गुजरने , भाषा और मुहावरे की बाधाओं के बनने और अपनी तीव्रता खो चुके प्रतीकों की अर्थहीन पुनरावृति पर कवि की पीड़ा की अभिव्यक्ति है | कवि समझदारी और एकता की और न बढ पाने की मानवीय अक्षमता और उस दुनिया पर गहरा दुःख प्रकट करता है , जिसमे भाषा मानवीय अनुभूतियों के आदान - प्रदान का माध्यम न बनकर विडंबनापूर्ण ढंग से एक अवरोध बन जाती है |
हुस्न भी था उदास , उदास , शाम भी थी धुआं - धुआं ,
याद सी आके रह गई दिल को कई कहानियाँ |
छेड़ के दास्तान - ए - गम अहले वतन के दरमियाँ ,
हम अभी बीच में थे और बदल गई| जबां |
सरहद ए गैब तक तुझे साफ़ मिलेंगे नक्श - ए - पा
पूछना यह फिर हूँ मैं तेरे लिए कहाँ - कहाँ |
रंग जमा के उठ गई कितने तमददुनों की बज़्म
याद नहीं जमी को , भूल गया आसमां |
जिसको भी देखिये वहीँ बजं में हैं ग़ज़ल सरा ,
छिड गई दास्तान - ए - दिल बहदीस ए दीगरा |
बीत गए हैं लाख जुग सुये वतन चले हुए ,
पहुंची है आदमी की जात चार कदम कषां - कषां |
जैसे खिला हुआ गुलाब चाँद के पास लहलाए,
रात वह दस्त - ए - नाज़ में जाम - ए - निशात - ए - अरगवा ,
मुझको फ़िराक याद है पैकर - ए - रंग - ओ - बुए दोस्त ,
पांव से ता जबी - ए - नाज़ , मेहर फशा - ओ - मह चुका |