गुरुवार, 24 मार्च 2011

शतरंज के खिलाड़ी

भारतीय कथा  - साहित्य के विकास में प्रेमचंद ( 1880 - 1936 ) का उल्लेखनीय योगदान  है |  प्रेमचंद का जन्म 1880 में बनारस से चार किलोमीटर दूर लमही नामक  गाँव में हुआ था | उनकी आरंभिक पढाई गाँव के एक मकतब में हुई | बनारस के मिशन स्कुल में उन्होंने मैट्रिक  पास किया | 1899   में अध्यापन से जीविकोपार्जन की शुरुवात की | नौकरी करते हुए उन्होंने बी . ए की पढाई पूरी की | वे स्कूलों के सब  - डिप्टी इंस्पेक्टर भी रहे | 1920 में महात्मा गाँधी के आहवान पर उन्होंने सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया | जीवन के उतर्वर्तीकाल सन 1934 में उन्होंने कुछ दिनों के लिए मुंबई में फिल्म  कथा लेखक के रूप में भी काम किया इस काम से उनका मन जल्दी ही उचट गया और वे बनारस लौट  आये |
          प्रेमचंद का मूलनाम धनपतराय था | उन्होंने लेखन की शुरुवात उर्दू से की | उर्दू में वे नवाबराय के नाम से लिखते थे | उर्दू में उनकी पहली कहानी संग्रह ' सोजे वतन ' नाम से छपा था | इसमें  रोमानी भावुकता में लिपटी  देश के लिए आत्म बलिदान  का सन्देश देने वाली पांच कहानियाँ हैं | अंग्रेज सरकार  ने राजद्रोह का आरोप लगा कर इस संग्रह को जब्त कर लिया था | प्रेमचंद जल्दी ही उर्दू से हिंदी में लिखने लगे | लेकिन उर्दू में उन्होंने लिखना बंद नहीं किया | उन्होंने अपने अधिकांश उपन्यास  पहले उर्दू में लिखे फिर उनका अपने आप ही हिंदी में रूपांतर किया | प्रेमचंद की हिंदी मुहावरेदार और बोलचाल की भाषा है | ' सेवा सदन ( 1918 ) ' बाज़ारे   हुस्न ' नाम से ' प्रेमाश्रम ' ( 1921 ) ' गोशए आफियत ' ' रंग भूमि ' ( 1925 ) ' चौगाने हस्ती ' तथा ' कर्म भूमि ' ( 1926 ) ' मैदाने अमल ' नाम से पहले उर्दू में लिखे गये थे ' लेकिन उनका प्रकाशन पहले हिंदी में हुआ था  हिंदी में प्रेम चंद  के दस पूर्ण ( तथा एक अधुरा ) उपन्यास प्रकाशित हुआ | उक्त उपन्यासों के अतिरिक्त उनके बाकि उपन्यास हैं ___ ' वरदान '  ( 1921 ) ' कायाकल्प ' ( 1926 ) ' निर्मला ' ( 1927 ) ' प्रतिज्ञा ' ( 1929 ) , ' गबन ' ( 1931 ) ' गोदान ' ( 1936 ) | मंगल सूत्र ' उनका अपूर्ण उपन्यास है | प्रेमचंद ने लगभग तीन सो कहानियां और तीन नाटक लिखे | उन्होंने तीन मासिक पत्रिकाओं ' माधुरी ', ' हंस ' और ' जागरण ' का संपादन प्रकाशन किया तथा समय - समय पर वैचारिक , साहित्यिक निबंध भी लिखे | उनके निबंधों का एक संग्रह ' कुछ विचार ' ( 1939 ) नाम से छपा | बाद में उनके पुत्र अमृत राय ने और सामग्री खोजकर इसका परिवर्धित संस्करण ' साहित्य का उद्देश्य ' नाम से प्रकाशित कराया | प्रेमचंद का निधन महीनों जलोदर रोग से ग्रस्त रहने के बाद 8 अक्टूबर 1936 को बनारस में हुआ |
             प्रेमचंद सोद्देश्य साहित्य के पक्षधर थे | उनका मानना था की साहित्य को सामाजिक बदलाव में सहायक होना चाहिए तथा मानवता की बेहतरी की ओर ले जाने का दायित्व निभाना चाहिए | अपनी कृतियों के माध्यम से उन्होंने इसी महत उद्देश्य की पूर्ति भी करनी  चाही | अपने समय ओर समाज पर प्रेमचंद  की पैनी नज़र थी | वे अपने समाज की समस्याए देख  रहे थे उनके समाधान तलाशने की भी कोशिश कर रहे थे | प्रेमचंद की हर रचना में कोई न कोई समस्या उठाई गई है | शुरुवाती उपन्यासों में प्रेमचंद समस्या के साथ - साथ समाधान देने की भी कोशिश करते हैं | प्रेमचंद की रचना क्षमता निरंतर विकासशील है | शुरू में आदर्शवादी  है फिर यथर्थोंन्मुख आदर्श की ओर मुड़ते  हैं ओर अन्तः आदर्श पीछे छुट जाता है | बचता है तो सिर्फ यथार्थ | ' गोदान ' उपन्यास तथा ' कफ़न ' कहानी इसके उदाहरण हैं | दलित समस्या , स्त्री पराधीनता , किसानों की दुर्दशा प्रेमचंद के केन्द्रीय सरोकार हैं | महाजनी सभ्यता की शोषक प्रवृतियों को उजागर करने के काम को प्रेमचंद ज्यादा तवज्जो देते हैं |
शतरंज के खिलाड़ी : यह कहानी पहले पहल ' माधुरी ' पत्रिका में अक्टूबर 1924 में छपी | इस कहानी पर सत्यजित राय  ने फिल्म  भी बनाई थी | यह पतनशील सामंतवाद का जिवंत चित्र प्रस्तुत करने वाली रचना है | वक्त वाजिद अलीशाह ( शाषनकाल  1847 -1856 ) का है | लखनऊ में लोग विलासता में डूबे हैं |समाज का उपरी तबका घोर आत्मकेंद्रित है | देश और  दुनिया में क्या हो रहा है इसके प्रति वे लोग बेखबर है | मिर्ज़ा सज्जाद अली ओर मीर रोशन अली के जरीय प्रभुवर्ग की दिग्भ्रमित  मानसिकता  का चित्रण किया  है  लखनऊ पर अंग्रेजी सेना का कब्ज़ा हो गया | वाजिद अलीशाह बंदी बना लिए गये | मीर ओर मिर्जा इससे  परेशान नहीं होते | वे शतरंज खेलते हुए अपनी जान दे देते हैं |

मंगलवार, 22 मार्च 2011

हुस्न भी था उदास

        फ़िराक़ गोरखपुरी 
          
              फ़िराक़ गोरखपुरी ( 1896 - 1982 ) का वास्तविक नाम रघुपति सहाय था | इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद उनका चयन सिविल सेवा में हो गया था | लेकिन उन्होंने इस सेवा से त्याग पत्र दे दिया , और 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए | 1923  में जवाहर लाल नेहरु ने उन्हें कांग्रेस का अवरसचिव नियुक्त किया | इस पद पर वे 1929  तक रहे | फ़िराक़ 1930 में इलाहबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्रवक्ता पद पर नियुक्त हुए | यहाँ उन्होंने 1958 तक शिक्षण कार्य किया | 1961 में उन्हें ' गुले नगमा ' के लिए साहित्य अकादमी सम्मान मिला और 1970 में वे ज्ञानपीठ परुस्कार से सम्मानित किये गए | फ़िराक़ की कविताओं के 15 खंड प्रकाशित हुए | उन्होंने थोडा - बहुत गद्द्य  लेखन भी किया | लगभग आधी शताब्दी तक वे भारतीय उपमहाद्वीप की उर्दूं कविता शीर्ष पर रहे | उन्होंने 40 हजार से भी अधिक शेर लिखे , और उर्दू कविता की तीन प्रमुख विधाओं ग़ज़ल , नज़्म और रुबाई पर गहरा प्रभाव डाला |
           उनकी कविता का अवसाद उन्हें  मीर तकी मीर से जोड़ता है | मीर की तरह फ़िराक ने भी अपने विचारों और भावों की अभिव्यक्ति के लिए हिन्दू पोंराणिकता और हिंदी शब्दों का प्रयोग किया है | अपनी कृति ' रूप ' ( 1946 ) के प्राक्कथन में उन्होंने लिखा ' भारतीय कविता को हिंदी और संस्कृत का पूरा लाभ लेना चाहिए | ' यह बात उन्होंने उर्दू कविता में बदलाव लाने और इसे भारतीय परिस्थितियों के निकट लाने के प्रयास के अंतर्गत कही | उनकी कविता में अंग्रेजी रोमांसवाद की छवियाँ भी देखी जा सकती है |
            फ़िराक़ की रचनाओं में परम्परा और आधुनिकता दोनों के ही प्रति आग्रहशीलता स्पष्टत: देखी जा सकती है | प्रेम और सोंदर्य की समयसिद्ध विषयवस्तु को छोड़े बिना , उन्होंने ग़ज़ल को अपना एक निजी स्वर व् संस्कार दिया | उन्होंने एक परिपक्व शैली विकसित की जिसमें भारतीय और फारसी परम्पराओं के साथ उस अंग्रेजी साहित्य के काव्य सम्बन्धी नियम - सिद्धांत भी गुंथे थे , जिसके वह अध्यापक थे और छात्र भी | उन्होंने अपने समय की जटिल दुविधाओं को समझा और मीर तथा ग़ालिब से प्राप्त रूपकों और प्रतीकों को नया अर्थ दिया |
           उनके प्रमुख काव्य संकलनों में ' मशाल ' नगमा - ए - साज़ ' और' ' हजार दास्तान ' शामिल है | उन्होंने हिन्दी और उर्दू में एक उपन्यास भी लिखा ___' साधू की कुटिया ' | उनका कुछ आलोचनात्मक लेखन और पत्रों का एक संग्रह भी प्रकाशित हुआ |
              हुस्न भी था उदास : फ़िराक़ के जीवन का एक पक्ष - राजनीती से उनके भावनात्मक लगाव से जुड़ा है | भारत के विभाजन का शोक उनकी कविता में  अभिव्यक्त हुआ है | प्रस्तुत ग़ज़ल समय गुजरने , भाषा और मुहावरे की बाधाओं के बनने और अपनी तीव्रता खो चुके प्रतीकों की अर्थहीन पुनरावृति पर कवि की पीड़ा की अभिव्यक्ति है | कवि समझदारी और एकता की और न बढ पाने की मानवीय अक्षमता और उस दुनिया पर गहरा दुःख प्रकट करता है , जिसमे भाषा मानवीय अनुभूतियों के आदान - प्रदान का माध्यम न बनकर विडंबनापूर्ण ढंग से एक अवरोध बन जाती है |

हुस्न भी था उदास , उदास , शाम भी थी धुआं - धुआं ,
याद सी आके रह गई दिल को कई कहानियाँ |

छेड़ के दास्तान - ए - गम  अहले वतन के दरमियाँ , 
हम अभी बीच में थे और बदल गई| जबां |

सरहद ए गैब तक तुझे साफ़ मिलेंगे नक्श - ए  - पा
पूछना यह फिर हूँ मैं तेरे लिए कहाँ - कहाँ |

रंग जमा के उठ गई कितने तमददुनों की बज़्म
याद नहीं जमी को  , भूल गया आसमां |

जिसको भी देखिये वहीँ बजं में हैं ग़ज़ल सरा ,
छिड गई दास्तान - ए - दिल बहदीस ए दीगरा |

बीत गए हैं लाख जुग सुये वतन चले हुए ,
पहुंची है आदमी की जात चार कदम कषां - कषां |

जैसे  खिला हुआ गुलाब चाँद के पास लहलाए,
रात वह दस्त - ए - नाज़ में जाम - ए - निशात - ए - अरगवा ,

मुझको फ़िराक याद है पैकर - ए - रंग - ओ - बुए दोस्त  ,
पांव से ता जबी - ए - नाज़  , मेहर फशा - ओ - मह चुका |