वर्ष 2010 के लिए सरस्वती सम्मान से विभूषित कन्नड़ साहित्यकार भैरप्पा ने जिंदगी के कई रूप देखे | उनके लेखन में इन कठिन अनुभवों के साथ उनके गहन अध्ययन का आधार दिखाई देता है |
कन्नड़ के प्रसिद्ध साहित्यकार संथेशिवारा लिंग्नय्या भैरप्पा को उनके चर्चित उपन्यास ' मंद्र ' के लिए वर्ष 2010 का सरस्वती सम्मान प्रदान किया गया था | भैरप्पा का नाम आधुनिक कन्नड़ - साहित्य के सबसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों में शुमार है | वास्तविकता यह है की आज वे कन्नड़ भाषा व् साहित्य की परिधि को लाँघ कर न सिर्फ अखिल भारतीय स्तर पर मान्य हो चुकें हैं बल्कि अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी पर्याप्त चर्चा हुई है | उनकी कृतियाँ लगभग सभी प्रमुख भाषाओँ के आलावा अंग्रेजी समेत कई विदेशी भाषाओँ में अनुदित हो चुकी है | हिंदी में तो उनके लगभग सभी उपन्यासों का अनुवाद उपलब्ध है | शिवराम कारंत के बाद यू . आर . अनंतमूर्ति के आलावा भैरप्पा संभवत : अकेले एसे उपन्यासकार है जिन्हें हिंदी पाठकों के बीच काफी लोकप्रियता मिली है |
भैरप्पा के अभी तक 22 उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं उनकी आलोचना - चिंतन की दो पुस्तकें छप चुकीं हैं | इसके आलावा उनकी आत्मकथा ' भित्ति ' भी प्रकाशित हो चुकी है इनसे अलग भी उन्होनें काफी कुछ लिखा है | लेकिन ये एक निर्विवाद तथ्य है की उन्हें व्यापक स्वीकृति एक उपन्यासकार के रूप में ही मिली है | उनका पहला उपन्यास है ' भीमकाय ' जो 1959 में छपा था , जबकि उनका नवीनतम उपन्यास ' आवरण ' 2010 में सबके सामने आया | इनके जिन उपन्यासों की विशेष चर्चा होती है , उनमें धर्मश्री, गृहभंग , वंशवृक्ष , दाटू ( उन्लंघन ) , पर्व तब्ब्ली ( गोधुली ) , तंतु साक्षी , सार्थ अदि शामिल हैं |
भैरप्पा के उपन्यास जिन प्रश्नों से टकराते नज़र आते हैं उनमें धर्म , लोकाचार , सनातनता , जाति, जीवन की सार्थकता जैसे मुद्दे प्रमुख हैं | ' गृहभंग ' में कथा के स्तर पर प्रत्यक्ष रूप से कोई पुर्वनियोजन किये बिना उन्होनें समाज और परिवार का चित्रण किया है | ' वंशवृक्ष ' में उन्होनें सनातन धर्म के मूल्यों की सार्थकता पर विचार किया है | इससे पूर्व ' गोधूलि ' में उन्होनें पूर्व और पश्चिम की सांस्कृतिक मूल्यों की टकराहट पर कलम चलाई थी | ' दाटू ' में उन्होनें जाति व्यवस्था की उलझनों पर रोशनी डाली है |
' पर्व ' में उन्होंने महाभारत में कथासूत्र को लेकर आधुनिक सन्दर्भों में उसकी विवेचना की है | उनके साहित्य में जिस चीज़ पर सबसे पहले ध्यान जाता है वह है परम्परा और शास्त्रों के प्रति उनका प्रश्नाकुल लगाव और आधुनिकता के प्रति उनकी आलोचनात्मक दृष्टि | परम्परा और आधुनिकता के बीच के संघर्ष का चित्रण उनके साहित्य को समझने का मुख्य सूत्र हो सकता है | उनके प्राय सभी उपन्यासों में इस विशेषता का समावेश देखा जा सकता है | वे आधुनिक होने के लिए परम्परा को खरिज करने के विचार से परहेज करते हैं | वास्तव में वे परम्परागत मूल्यों का वर्तमान के संदर्भ में प्रत्याख्यान करते हैं | यही उनकी रचनाशीलता का उलेखनीय पक्ष है जो उन्हें महत्वपूर्ण साबित करने के साथ - साथ विवादास्पद भी बनाता है |
उनका समूचा साहित्य व्यक्तिगत अनुभवों और व्यापक अध्ययन की बुनियाद पर खड़ा है | उनका जन्म एक बेहद गरीब परिवार में हुआ | 1934 में पुराने मैसूर राज्य के एक मामूली गाँव में जन्में भैरप्पा महज 11 साल की उम्र में अनाथ हो गये थे | इस कारण शुरू से ही उन्हें दो जून के भोजन के इंतजाम के लिए भटकना पड़ा | छोटे - मोटे काम करते हुए उनहोंने किसी तरह पढाई जारी रखी | मक्सिम गोर्की और वैकम मोहम्मद बशीर की तरह उन्होंने भी खुद को बचाए रखने के लिए बेहिसाब पापड़ बेले | उन्होंने बांबे सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर कुली का काम किया , तांगा चलाया ,रेस्टोरेंट में वेटर का काम किया , सिनेमाघर में गेटकीपर का काम किया ,मेले में शर्बत की दुकान खोली और घूम - घूम कर अगरबतियाँ बेचीं | इस तरह उनके जीवन का खाता संघर्षों के अनगिनत प्रसंगों से भरा हुआ है | मगर इसका दूसरा पक्ष भी है संघर्षों के बीच भी उन्होंने जमकर अध्ययन भी किया नतीजतन उन्हें मैसूर में अध्यापकी का काम मिला | बाद में वे एन . सी . ई . आर टी , दिल्ली में शिक्षा अधिकारी भी बने | उन्होंने दर्शनशास्त्र के साथ - साथ कला , संगीत और सोंदर्यशास्त्र का विशद अध्ययन किया है , जिसका प्रभाव उनकी कृतियों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है |
उनके एक शुरुवाती उपन्यास ' धर्मश्री ' ( 1960 ) की कथाभूमि में संगीत का परिवेश वर्णित है , तो 2002 में प्रकाशित ' मंद्र ' में भी संगीत की मौजूदगी है | सरस्वती सम्मान से सम्मानित ' मंद्र ' में भैरप्पा ने एक बार फिर मूल्य और नैतिकता के प्रश्नों को उठाया है | अपनी छात्रा के प्रति एक शिक्षक का आकर्षण और छात्रा का अपने पति के प्रति नैतिकता के द्वन्द को लेकर रचे गये इस उपन्यास में कला बनाम नैतिकता का पुरातन प्रश्न मुखर हो उठा है |
साहित्य के संदर्भ में एक चीज़ की अक्सर चर्चा होती है वह है ' पोलिटिकली करेक्ट ' होने का प्रश्न | भैरप्पा के सन्दर्भ में यह अत्यंत महत्वपूर्ण है | भैरप्पा ने गलत कहे जाने का जोखिम उठाकर भी अपनी बात कही है | उनका मानना है की साहित्य - सृजन सामूहिक काम नहीं होता | यह एक आन्दोलन भी नहीं है | प्रत्येक को अपनी भावना को और दृष्टिकोण के अनुसार अपने आप लिखने का काम करना चाहिए | इसलिए इसमें नेतृत्व करने का प्रश्न ही नहीं आता | साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि एक लेखक का अपने देखे हुए और अनुभूत जीवन के बारे में लिखना स्वाभाविक होता है | परन्तु लेखन जब सृजनशील होता है तब वह अपनी सीमा ही नहीं लांघता , बल्कि अपनी जाति , मत , वर्ग , लिंग , देश आदि का भेद भी लाँघ जाता है |
उनका समूचा साहित्य व्यक्तिगत अनुभवों और व्यापक अध्ययन की बुनियाद पर खड़ा है | उनका जन्म एक बेहद गरीब परिवार में हुआ | 1934 में पुराने मैसूर राज्य के एक मामूली गाँव में जन्में भैरप्पा महज 11 साल की उम्र में अनाथ हो गये थे | इस कारण शुरू से ही उन्हें दो जून के भोजन के इंतजाम के लिए भटकना पड़ा | छोटे - मोटे काम करते हुए उनहोंने किसी तरह पढाई जारी रखी | मक्सिम गोर्की और वैकम मोहम्मद बशीर की तरह उन्होंने भी खुद को बचाए रखने के लिए बेहिसाब पापड़ बेले | उन्होंने बांबे सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर कुली का काम किया , तांगा चलाया ,रेस्टोरेंट में वेटर का काम किया , सिनेमाघर में गेटकीपर का काम किया ,मेले में शर्बत की दुकान खोली और घूम - घूम कर अगरबतियाँ बेचीं | इस तरह उनके जीवन का खाता संघर्षों के अनगिनत प्रसंगों से भरा हुआ है | मगर इसका दूसरा पक्ष भी है संघर्षों के बीच भी उन्होंने जमकर अध्ययन भी किया नतीजतन उन्हें मैसूर में अध्यापकी का काम मिला | बाद में वे एन . सी . ई . आर टी , दिल्ली में शिक्षा अधिकारी भी बने | उन्होंने दर्शनशास्त्र के साथ - साथ कला , संगीत और सोंदर्यशास्त्र का विशद अध्ययन किया है , जिसका प्रभाव उनकी कृतियों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है |
उनके एक शुरुवाती उपन्यास ' धर्मश्री ' ( 1960 ) की कथाभूमि में संगीत का परिवेश वर्णित है , तो 2002 में प्रकाशित ' मंद्र ' में भी संगीत की मौजूदगी है | सरस्वती सम्मान से सम्मानित ' मंद्र ' में भैरप्पा ने एक बार फिर मूल्य और नैतिकता के प्रश्नों को उठाया है | अपनी छात्रा के प्रति एक शिक्षक का आकर्षण और छात्रा का अपने पति के प्रति नैतिकता के द्वन्द को लेकर रचे गये इस उपन्यास में कला बनाम नैतिकता का पुरातन प्रश्न मुखर हो उठा है |
साहित्य के संदर्भ में एक चीज़ की अक्सर चर्चा होती है वह है ' पोलिटिकली करेक्ट ' होने का प्रश्न | भैरप्पा के सन्दर्भ में यह अत्यंत महत्वपूर्ण है | भैरप्पा ने गलत कहे जाने का जोखिम उठाकर भी अपनी बात कही है | उनका मानना है की साहित्य - सृजन सामूहिक काम नहीं होता | यह एक आन्दोलन भी नहीं है | प्रत्येक को अपनी भावना को और दृष्टिकोण के अनुसार अपने आप लिखने का काम करना चाहिए | इसलिए इसमें नेतृत्व करने का प्रश्न ही नहीं आता | साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि एक लेखक का अपने देखे हुए और अनुभूत जीवन के बारे में लिखना स्वाभाविक होता है | परन्तु लेखन जब सृजनशील होता है तब वह अपनी सीमा ही नहीं लांघता , बल्कि अपनी जाति , मत , वर्ग , लिंग , देश आदि का भेद भी लाँघ जाता है |