गुरुवार, 3 मार्च 2011

मुझसे पहली- सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग

 फैज़ ( 1911 - 1984 ) का जन्म पंजाब के सियाल कोट में हुआ था | उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में स्नातक की उपाधि ली और अमृतसर में कार्य  शुरू किया | वहां वे माकर्सवाद के संपर्क में आये और प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल हुए | द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अध्यापन कार्य छोड़ कर वे भारतीय सेना में शामिल हुए और उन्हें अपनी उत्कृष्ट सेवा के लिए एम . बी . ई पुरुस्कार प्राप्त हुआ | भारत विभाजन के बाद उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी और लाहौर  चले गए | यहाँ वे संपादन कार्य के साथ - साथ ट्रेड यूनियन नेता के रूप में कार्य करते रहे | 1951 में सरकार विरोधी गतिविधियों में भाग लेने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार किया  गया और उन्हें चार वर्ष की सजा भी मिली | 1962 में उन्हें लेनिन शांति  पुरस्कार से भी नवाज़ा गया | उसके बाद दो साल उन्होंने लन्दन में बिताये | इस दौरान  इन्होनें  खूब भ्रमण किया | उसके बाद वे लाहौर  वापस आये , परन्तु वो यहाँ शांति से नहीं रह सके | उन्हें लाहौर छोडना  पड़ा और 1978 से लेकर 1982 तक वो बेरुत में आत्मनिर्वासन की स्थिति में रहे | वे फिर लाहौर लौटे  और 1984 में लाहौर में ही उनका निधन हो गया |
             ' नक्श - ए - फरियादी ' ( 1941 ) ' दस्त - ए - सबा ' ( 1953 ) ' जिंदानामा ' ( 1956 ) ' सर - ए - वादिए - सिना ' ( 1971 ) और शाम - ए - सहर - यारां  ( 1979 ) में लिखी गई हैं | इनकी कविताओं का अनेक भाषाओँ में अनुवाद हुआ और ये कवितायेँ पत्र - पत्रिकाओं और रेडिओ आदि के माध्यम से पाठकों और दर्शकों की बहुत बड़ी संख्यां तक पहुंची | लगभग हर लोकप्रिय गायक ने उनकी गजलों को गाया है |
               फैज़ को जितना क्रान्तिकारी  कवि माना जाता है उतना ही बड़ा प्रेम का कवि भी माना जाता है | उनके लिए क्रांतिकारिता और प्रेम की अभिव्यक्ति दो अलग - अलग भाव न होकर , एक समग्र अभिव्यक्ति के ही रूप थे | फैज़ की कविता में प्रेम के अनेक रूप है | प्रेम का आशय चुनौती , अवज्ञा , आत्म अभिव्यक्ति अथवा आत्म निषेध , आत्म त्याग , आत्म दया , वियोग और निष्कासन की पीड़ा ( जिससे फैज़ अच्छी तरह से परिचित थे ) __ इनमें से कुछ भी हो सकता है | ' मुझसे पहली- सी  मुहब्बत मेरी महबूब  न मांग ' उनकी पहली नज्मों में से एक है | इसमें जीवन की कठोर वास्तविकताओं का वह अनुभव है जो उन्हें उनकी प्रेमिका और उनके प्रेम से अलग हटने को विवश करता है  |
              फैज़ हफ़ीज़ और रूमी के सूफी आदर्शों से प्रभावित हैं | पुरानी परम्पराएँ और मुहावरे उनकी कविता में  उस समय तात्कालिक अर्थ ग्रहण कर लेते हैं , जब कवि को यह  एहसास होता है की प्रेम की उनकी प्रारम्भिक चाह और वर्तमान में सामाजिक और राजनैतिक न्याय की तलाश वस्तुत : दोनों ही स्थिति के दो रूप हैं | दोनों ही त्याग और सम्पूर्ण की मांग करते हैं |
              यह नज़्म वर्तमान विसंगतियों और समस्याओं को एक एसे मुहावरे में जो प्राच्य स्वर को बनाये रखने के साथ ही तथा ग़ालिब और इकबाल जैसे कवियों द्वारा प्रयुक्त पारम्परिक प्रतीकों शब्दों और छवियों को एक नई चेतना के साथ अभिव्यक्त करने की उनकी क्षमता को प्रदर्शित करती है | अपने एक साक्षात्कार में फैज़ ने बताया कि उनके लिए " पुराना और नया , पारम्परिक और समकालीन साहित्य कि व्यापक और मिली - जुली रवायत में उचित स्थान ग्रहण करते हैं | " फैज़ जीवन भर उर्दू , पंजाबी , हिंदी , फारसी और अंग्रेजी तथा अन्य  भाषाओँ के साहित्य कि विभिन्न परम्पराओं के गहन अध्येता रहे | इन सबकी समन्वय उनकी काव्य यात्रा में अनूठे ढंग से दिखाई देता है |

मुझसे पहली मुहब्बत मेरी महबूब न मांग 
मैनें समझा कि तू तो दरख्शां१ है हयात २ 
तेरा गम है तो गमें - दहर३ का झगडा क्या है 
तेरी सूरत से है आलम४ में बहारों को सबात५ 
तेरी आँखों के सिवा दुनियां में रखा क्या हैं ?
       तू जो मिल जाये तो तकदीर निगूं६  हो जाये 
यूँ न था , मैने फकत चाहा था यूँ हो जाये 
और भी दुःख है जमाने में मुहब्बत के सिवा 
राहतें और भी हैं वस्ल कि राहत७ के सिवा 
अनगिनत सदियों के तारिक ८ बहीमाना९  तिलिस्म 
रेशमो - अतलसो - कम ख्वाब१० में बुनवाये हुए 
जा - ब - जा११ बिकते कूचा१२ - ओ - बाज़ार में जिस्म 
खाक१३  में लिथड़े हुए खून में नहलाये हुए 
        लौट  जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे 
       अब भी दिलकश१४ है तेरा हुस्न , मगर क्या कीजे 
और भी दुख है जमाने में मुहोब्बत के सिवा 
राहतें और भी है वस्ल कि राहत के सिवा 
मुझसे पहली से मुहब्बत मेरे महबूब न मांग |

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१   दरख्शां ------------------रौशन , चमकता हुआ |
२   हयात --------------------जीवन 
३    गमें दहर ------------------जमाने का दुःख 
४    आलम ----------------------दुनियां 
५    सबात ----------------------ठहराव 
६    निगूं -------------------------बदल जाना 
७    वस्ल कि राहत ---------------मिलन का आनंद 
८     तारिक ----------------------अँधेरा 
९     बहीमाना --------------------पशुवत , क्रूरता 
१०   रेशमो - अतलसो - कम ख्वाब------ रेशम , अलतस और मलमल , कपड़ों के प्रकार 
११   जा - ब - जा ------------------जगह - जगह 
१२   कूचा --------------------------गली 
१३    खाक -------------------------धुल , राख
१४   दिलकश -----------------------आकर्षण 
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रविवार, 27 फ़रवरी 2011

संतों देखत जग बौरान

उत्तर भारत में निर्गुण संत परम्परा की जो धरा प्रवाहित हुई उसका श्रेय कबीर को दिया जाता है | वैसे तो कबीर का जीवन किम्वदंतियों , अटकलों , चमत्कारिक कहानियों से ढक दिया गया है |
जो बात असंदिग्ध रूप से कही जा सकती है वह ये है की उनका पालन - पोषण एक जुलाहा परिवार में हुआ था | इस परिवार को इस्लाम धर्म में आये हुए अभी बहुत समय नहीं हुआ था , इसलिए इस्लाम और हिन्दू दोनों धार्मिक परम्पराएँ साथ - साथ चल रही थी | कबीर के गुरु के रूप में रामानंद का नाम लिया जाता है | इस बिंदु पर विद्वानों का मत भले एक न हो लेकिन निर्गुण राम के प्रति कबीर की निष्ठां संदेह से परे है | आजीविका के लिए कबीर जुलाहे का व्यवसाय करते थे | कबीर के जीवन काल के सम्बन्ध में अध्येताओं में मतभेद है | मोटे तोर में उनका समय सन 1398 - 1448 माना गया है | 
                   कबीर की काव्य - संवेदना लोकजीवन से अपनी उर्जा ग्रहण करती है | यह संवेदना मनुष्य - मात्र की समानता की पक्षधर है | जो परम्परा  मनुष्य मनुष्य में भेद करती है , कबीर उसके खिलाफ खड़े दिखाई देते हैं | वे शास्त्र ज्ञान पर नहीं ,' आखिन देखि ' पर यकीं करते हैं | ढोंग और पाखंड से उन्हें गहरी चिढ है | वे सहज , सरल जीवन जीने के पक्ष में हैं | प्रवृति और निवृति दोनों तरह का अतिवाद उन्हें कभी स्वीकार  नहीं हुआ | उनकी कविता में एक जुलाहे का जीवन बोलता है | वे पुरे आत्मविश्वास के साथ प्रतिपक्षी को चुनौती देते हैं | उनकी कविता जीवन के बुनियादी सवाल उठाती है | इन सवालों की प्रासंगिकता छ: सौ साल बाद आज भी बनी हुई है |
         कबीर को ' वाणी का डिक्टेटर ' कहा गया है | इस का अर्थ ये है की भाषा उनकी अभिव्यक्ति में रोड़े नहीं अटका पाती | वे बोलचाल की भाषा के हिमायती थे | उनकी कविता में तमाम बोलियों , भाषाओँ से आये शब्द शामिल हैं | कबीर की रचनाओं की प्रमाणिकता को लेकर विवाद है | कबीर की रचनाएँ प्राय : मौखिक रूप से संरक्षित रही , इसलिए उनमे भाषा के बदलते रूपों की रंगत शामिल होती गई | इन रचनाओं का मूल रूप क्या था , इसका ठीक - ठीक पता लगाना आज बहुत कठिन है | कबीर की वाणियों का संग्रह ' बीजक ' के नाम से प्रसिद्ध है | कबीरपंथ इसे ही प्रमाणिक मानते हैं | कबीर की रचनाओं का संग्रह और संपादन आधुनिक युग के कई विद्वानों ने किया है |
           कबीर को हिन्दू - मुस्लिम एकता का प्रतीक बना दिया गया है | एसी समझ प्रचारित कर दी गई है की कबीर दोनों धर्मों को आपस में जोड़ने की कोशिश कर रहे थे | जहां भी ' सर्व - धर्म - समभाव ' की बात आती है वहां कबीर को उदाहरण के रूप में रखा जाता है | यह मान्यता पूरी तरह सही भी नहीं है | कबीर मात्र सर्व - धर्म - समभाव के कवी नहीं हैं | वे अपने समय में मौजूद सभी धर्मों की बुराइयों से परिचित हैं | उनकी आलोचना करने  में वे हिचकते नहीं | उनका व्यंग , धर्म का धंधा करने वालों की पोल खोल देता है | हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों में उन्हें मिथ्यात्व दिखाई देता है | वे इन संगठित धर्म - मतों से अलग तीसरे विकल्प का प्रस्ताव करते हैं | समाज की गति पर कबीर को गुस्सा  आता है | उनका गुस्सा इस बात को लेकर है की यह संसार झूठ पर तो विश्वास कर लेता है लेकिन सच बताने वालों को मारने दौड़ता है |

संतों देखत जग बौरान |
सांच कहों तो मरण धावै | झूठे जग पतियाना ||
नेमी देखा धरमी देखा |परत करे असनाना ||
आतम मरी पखान्ही पूजै |उनमें कछु नहीं ज्ञाना ||
भुतक देखा पीर औलिया | पढ़े किताब कुराना ||
कहे कबीर सुनो हो संतों | ई सब गर्भ भुलाना ||
केतिक कहों कहा नहिं मानै | सहजै सहज समाना ||